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वृक्षारोपण के नाम पर हर साल करोड़ों की बर्बादी, न पौधे बचे, न जवाबदेही
करोड़ों के वृक्षारोपण की हरियाली कागज़ों तक सीमित, ज़मीनी सच्चाई उजाड़ और बेनकाब
शरद कटियार
उत्तर प्रदेश में सरकार हर वर्ष जुलाई के महीने में बड़े जोरशोर से वृक्षारोपण अभियान चलाती है। करोड़ों रुपये खर्च होते हैं, लाखों कर्मचारी और छात्र-छात्राएं इस अभियान में भाग लेते हैं, मुख्यमंत्री और मंत्रीगण कैमरों के सामने पौध लगाकर पर्यावरण को बचाने का संदेश देते हैं। सोशल मीडिया और अखबारों में सरकारी विभागों की फोटो प्रसारित हरियाली दिखाकर ऐसा माहौल बना दिया जाता है मानो अगले ही साल प्रदेश में जंगल उग आएंगे। लेकिन जब कैमरे हटते हैं, फोटो सेशन खत्म होता है और प्रचार थमता है, तब असलियत धीरे-धीरे सामने आती है पौधे गायब, गड्ढे सूखे और ज़मीन पहले से ज़्यादा वीरान।
2024 में उत्तर प्रदेश सरकार ने दावा किया था कि पूरे प्रदेश में 35 करोड़ पौधे लगाए गए। इसके लिए करीब 100 करोड़ रुपये से अधिक का बजट खर्च हुआ। लेकिन एक साल बाद जब उन पौधों का निरीक्षण शुरू हुआ, तो ज़्यादातर स्थानों पर न पौधे मिले, न ही उनकी देखरेख के कोई निशान। अगर सरकार के दावे के मुताबिक लगाए गए पौधों का सिर्फ 10% यानी 3.5 करोड़ पौधे भी जीवित रहते तो उत्तर प्रदेश के हर शहर, हर गांव और हर सड़क किनारे हरियाली की चादर बिछी नजर आती। लेकिन ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता। यह स्थिति इस बात का संकेत है कि वृक्षारोपण अब सिर्फ एक सरकारी कार्यक्रम नहीं, बल्कि एक महंगा मज़ाक बन चुका है, जिसे हर साल दोहराया जाता है।
सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि सरकार खुद इन पौधों की सुरक्षा, देखरेख और निगरानी के कोई ठोस इंतजाम नहीं करती। न तो लगाए गए पौधों की जियो टैगिंग होती है, न किसी स्थानीय निकाय या अधिकारी को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार ठहराया जाता है, और न ही वर्ष के अंत में कोई स्वतंत्र ऑडिट होता है। नतीजा यह होता है कि लाखों पौधे बिना पानी और सुरक्षा के सूख जाते हैं या जानवर खा जाते हैं। कई बार तो फोटो के लिए गड्ढे में पौधा लगाकर तुरन्त निकाल लिया जाता है, ताकि गिनती पूरी हो जाए और रिपोर्ट में हरा जंगल नजर आए।अब एक बार फिर 9 जुलाई 2025 को पूरे उत्तर प्रदेश में वृहद वृक्षारोपण अभियान की घोषणा की गई है।
सभी जिलाधिकारियों को निर्देश जारी कर दिए गए हैं। तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा है और सरकारी प्रचार मशीनरी फिर से सक्रिय हो गई है। लेकिन सवाल वही है क्या इस बार कुछ बदलेगा? क्या सरकार यह सुनिश्चित कर पाएगी कि लगाए गए पौधे जीवित रहें, बढ़ें और पर्यावरण को वाकई लाभ पहुंचे? या यह अभियान फिर से सिर्फ फोटो और आंकड़ों का खेल बनकर रह जाएगा?वास्तव में जरूरत वृक्षारोपण से कहीं अधिक वृक्ष संरक्षण की है। जब तक हर पौधे की देखरेख की स्पष्ट जिम्मेदारी तय नहीं की जाएगी, तब तक ये अभियान सिर्फ खर्च और दिखावे की कवायद रहेंगे। हर जिले में ग्राम पंचायत स्तर पर एक स्थानीय निगरानी तंत्र बनाया जाना चाहिए, जिसमें स्कूल, कॉलेज, समाजसेवी संस्थाएं और ग्रामीण स्वयंसेवी शामिल हों। सरकार को चाहिए कि वह ‘अडॉप्ट ए ट्री’ जैसी योजना लाए, जिसमें हर अधिकारी और जनप्रतिनिधि कुछ पौधों की व्यक्तिगत जिम्मेदारी ले। साथ ही वर्ष के अंत में स्वतंत्र एजेंसी से इन पौधों का सर्वे और ऑडिट कराया जाए, ताकि असल स्थिति सामने आ सके।
पर्यावरण की रक्षा केवल एक दिन पौधे लगाने से नहीं होती, यह एक दीर्घकालिक जिम्मेदारी है, जिसके लिए नीयत, नीति और निगरानी तीनों की जरूरत होती है। उत्तर प्रदेश जैसे विशाल और जनसंख्या घनत्व वाले राज्य में पर्यावरण संकट गंभीर रूप ले चुका है। प्रदूषण, जल संकट और तापमान में बढ़ोत्तरी जैसी समस्याएं लगातार बढ़ रही हैं। ऐसे में वृक्षारोपण एक विकल्प नहीं, बल्कि आवश्यकता है लेकिन यह तभी सफल होगा जब इसे ईमानदारी से किया जाए और हर पौधे को भी एक जीवन की तरह समझा जाए।सरकार को अब यह समझना होगा कि जनता अब केवल आंकड़ों और हरे होर्डिंग्स से बहलने वाली नहीं है। असल हरियाली वही है जो ज़मीन पर नजर आए, जो छांव दे, जो हवा को शुद्ध करे। अगर यह अभियान सिर्फ एक दिन का तमाशा बन कर रह गया, तो न सिर्फ जनता का विश्वास टूटेगा, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए हम एक झुलसती हुई विरासत छोड़कर जाएंगे। इसलिए अब वक्त है कि वृक्षारोपण को ‘वृक्ष-प्रपंच’ बनने से रोका जाए और उसे जनभागीदारी, पारदर्शिता और संरक्षण के संकल्प से जोड़ा जाए।
